Shalya Tantra – Basic Concepts

आयुर्वेद के आठ अंग – 

तद्यथा- शल्यं, शालाक्यं, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्यम्, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र वाजीकरणतन्त्रमिति। (सु.सू. 1/7)

सुश्रुत संहिता रचना –

स्थानअध्याय
1. सूत्र46
2. निदान16
3. शारीर 10
4. चिकित्सा 40
5. कल्प 8
6. उत्तर66

सुश्रुत संहिता में अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन – 

  • शालाक्य तंत्र           –            उत्तर तंत्र में वर्णन
  • कौमार भृत्य             –            उत्तर तंत्र में वर्णन
  • कायचिकित्सा          –            उत्तर तंत्र में वर्णन
  • भूतविद्या                 –           उत्तर तंत्र में वर्णन
  • वाजीकरण             –            चिकित्सा स्थान में वर्णन
  • रसायन                 –           चिकित्सा स्थान में वर्णन
  • विष तंत्र                 –            कल्प स्थान में वर्णन
  • शल्य तंत्र               –             सर्वत्र वर्णन

शल्य परिभाषा (आचार्य डल्हण के अनुसार) –

अतिप्रवृद्धं मलदोषजं वा शरीरिणां स्थावरजङ्गमानाम्। 

यत्किञ्चिदाबाधकरं शरीरे तत्सर्वमेव प्रवदन्ति शल्यम्। 

  • अर्थात् अत्यधिक बढ़े हुए दोष (शारीरिक एवं मानसिक) अथवा मल पदार्थ जिससे शरीर को कष्ट होता हो, तथा किसी भी स्थावर अथवा जांगम पदार्थ (foreign body) द्वारा शरीर में रूजा (pain) उत्पन्न हो उसे शल्य कहा जाता है ।

शल्य तन्त्र परिभाषा –

सर्वशरीराबाधकरं शल्यं, तदिहोपदिश्यत इत्यतः शल्यशास्त्रम्। (सु.सू. 26/4) 

अर्थात् समस्त शरीर में जो बाधा या पीड़ा उत्पन्न करता हो, उसे शल्य कहते हैं, उसी का वर्णन एवं चिकित्सा जिसमें वर्णित हो उसे शल्य तन्त्र कहते हैं। 

तत्र शल्यं नाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्टास्थि बालनखपूयास्रावदुष्टव्रणान्तगर्भ शल्योद्धरणार्थं, यन्त्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधानव्रणविनिश्चयार्थञ्च। (सु. सू. 1/9)

  • अर्थात् आयुर्वेद के जिस अंग में अनेक प्रकार के तृण, काष्ठ (लकड़ी), पत्थर, धूलि के कण, लौह, मिट्टी, अस्थि, केश, नाखून, पूय (Pus), स्राव (Discharge) आदि शल्य, दूषित व्रण, अन्तः शल्य तथा मृतगर्भ शल्य को निकालने का ज्ञान, यन्त्र, शस्त्र, क्षार और अग्निकर्म करने का ज्ञान, तथा व्रणों की आम, पच्यमान, और पक्वावस्था आदि का निश्चय किया जाता हो, उसे शल्य तन्त्र कहते हैं।

शल्य चिकित्सक के गुण –

शौर्यमाशुक्रिया शस्त्रतक्ष्ण्यमस्वेदवेपथु। 

असम्मोहश्च वैद्यस्य शस्त्रकर्मणि शस्यते। (सु.सू.5/10) 

  • शूरता (निर्भयता braveness)
  • शस्त्र कर्मादि में शीघ्रता
  • शस्त्र की धार का उचित तीक्ष्ण होना
  • शस्त्र कर्म करते समय पसीना (cold sweating due to neurogenic shock) न आना तथा हाथ का न काँपना (Trembling) तथा 
  • बड़े शस्त्र कर्म की दशा में अत्यधिक रक्तादि को देखकर मूर्च्छित (fainting due to neurogenic shock) न होना, ये शल्य चिकित्सक के गुण हैं। 

आधुनिक मतानुसार Surgeon में निम्न गुण होने चाहिए 

Lady’s finger   –     gentle handling 

Lion’s heart     –     boldness 

Eagle’s eye      –    Watchfullness 

Horse’s leg      –    Stamina 

Camel’s belly   –   Ability to carry on without food and water

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