आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के ग्रन्थों में अनुसंधान की वैज्ञानिक अवधारणा (Contemporary medical sciences evidences of research in Ayurved classics)



आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांत

  • पंचमहाभूत
  • त्रिदोष
  • षड्पदार्थ
  • स्रोतस्
  • अग्नि

आयुर्वेद चिकित्सा का करण औषध द्रव्यों की संरचना, प्राप्तिस्थान, वर्गीकरण, उनके गुण-कर्म तथा उनकी कार्मुकता भी विज्ञान पर आधारित है।

आयुर्वेद के औषध निर्माण के क्षेत्र में रसशास्त्र एवं भैषज्य कल्पना की विभिन्न औषध कल्पनाएं स्वरस-कल्क-शृत-शीत-फाण्ट-चूर्ण-आसव-अरिष्ट तथा रसौषधि-भस्म आदि रोगी एवं रोग के आधार पर पूर्णत: वैज्ञानिक हैं।

रोगनिदान के क्षेत्र में पंचनिदान, रोगी परीक्षा के साधन, रोगों से सुरक्षा आदि भी पूर्णत: विज्ञान पर आधारित हैं।

आयुर्वेद चिकित्सा संशोधन-संशमन, पंचकर्म, अग्निकर्म, क्षारकर्म, जलौका कर्म, शल्यकर्म तथा स्वस्थवृत्त के क्षेत्र में में विभिन्न प्रकार के रसायन-वाजीकरण, सदवृत्त, आचार रसायन, विरुद्ध आहार, योग (अष्टांग योग), आहार-विहार, अनुपान आदि पर वैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया है।

आयुर्वेदीय सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता :-

(a) पंचमहाभूत सिद्धान्त :-

पंचमहाभूत आयुर्वेद का भौतिक एवं रासायनिक आधार है। आयुर्वेदीय पंचमहाभूत सिद्धान्त सृष्टि की सबसे छोटी इकाई माने जाने वाले परमाणु से भी सूक्ष्म है।

परमाणु की परीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि परमाणु में गुरुत्व (भार), संश्लेषण, ऊर्जा, गति और अवकाश क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश महाभूत , को इंगित करते हैं। इस दृष्टि से परमाणु पंचमहाभूतात्मक है तथा उसके विभाजन की आवश्यकता है। जिससे उसके मौलिक तत्त्वों तक पहुँचा जा सके।

“सर्वं द्रव्यं पांचभौतिकम्’ द्वारा महर्षि चरक ने जैविक शरीर की इकाई Cell को परमाणु सदृश माना है। अत: परमाणु सदृश उससे भी सूक्ष्म पंचमहाभूत सिद्धान्त पूर्ण वैज्ञानिक है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच तत्त्व पंचमहाभूत कहलाते हैं । शरीर इन्हीं पंचमहाभूतों से निर्मित है और आहार द्रव्य तथा औषध द्रव्य भी पांचभौतिक है ।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी पंचमहाभूतों की उपयोगिता है। पंचमहाभूत जब तक समावस्था में रहते हैं तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये विषम हो जाते हैं तब विकृति उत्पन्न होती है। उस वृद्धि या क्षय स्वरूपा विकृति की अवस्था में तत्त्वों को घटाने या बढाने वाले द्रव्य भी (विपरीत गुण वाले या समान गुण वाले) पांचभौतिक ही होते हैं।

(b) त्रिदोष सिद्धान्त :-

सृष्टि के सभी सजीव व निर्जीव पदार्थ पांचभौतिक होते हैं परन्तु सजीव प्राणियों में पंचमहाभूतों के संयोग विशेष से तीन विशिष्ट क्रियाशील तत्त्व प्रादुर्भूत होते हैं जिन्हें वात, पित्त, कफ नाम से जानते हैं। सामान्यतः ये त्रिदोष कहलाते हैं। परन्तु जीवित शरीर में क्रियाओं का संचालन करने व पुरुष का धारण करने से धातु, विषमावस्था में होकर शरीर में विकृति करने के कारण दोष और निष्क्रिय होकर शरीर से बाहर निकलने के कारण मल कहलाते हैं।

इस प्रकार त्रिदोष दोष-धातु-मल तीनों अवस्थाओं में होने पर भी विकृति करने की विशेष क्षमता होने के कारण दोष शब्द इनके लिए रूढ हो गया है। अत: सामान्यत: इनको त्रिदोष कहते हैं।

त्रिदोष शरीर का जैविक (Biological) आधार है तथा सभी परिवर्तनों का संचालक है। ये शरीर के प्रत्येक परमाणु में स्थित है क्योंकि त्रिदोष पंचमहाभूतों का स्थूल स्वरूप है।

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